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हिन्दी के प्रथम छंद शास्त्री आचार्य जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' Jagannath Prasad Bhanu

हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभिक वर्षों में साहित्य नियमन के तीन अंग, भाषा, व्याकरण और साहित्य शास्त्र के नेतृत्व की बागडोर मूल रूप से 'द्विवेदी... गुरू... भानु' की महत्त्रयी के हाथों में रही। भारतेन्दु काल में आधुनिक समीक्षा को प्रौढ़ रूप नहीं मिलता है किंतु उसका प्रारंभिक स्वरूप महत्व है। इस युग से ही समीक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन प्रारंभ हो गया। हिन्दी को विगत युग के साहित्य के अलावा प्रांतीय भाषाओं के साहित्य से भी पर्याप्त सामग्री मिली और हिन्दी का नवीन रूप एक युग आवश्यकता की पूर्ति के रूप में प्रस्तुत हुआ। साहित्य के प्रेरणा तत्व बने सुरुचि, नैतिकता और बौध्दिकता। परवर्तीकाल में साहित्यशास्त्र के सैध्दांतिक व्यवहारिक पक्षों में पश्चिमी तत्वों की स्वीकृति क्रमश: अधिक होती गई। पूर्व स्थापित भारतीय मानदण्ड के आधार पर समीक्षण कम होता गया। साहित्य शास्त्र विवेचना का यह प्रत्यावर्तन, उसमें समाज शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक तत्वों के सूचक बिन्दुओं का स्वभावत: ही बहुत महत्व है। भानुजी के पूर्व शास्त्रीय ग्रंथों में निश्चयत: संस्कृति की परम्परा का पिष्ट पोषण ही किया जा रहा था।
आधुनिक हिन्दी साहित्य शास्त्र परम्परा का अध्ययन आचार्य जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के छंद और 'प्रभाकर' और 'काव्य प्रभाकर' को छोड़कर नहीं किया जा सकता, किंतु आधुनिक शोध-ग्रंथों में आचार्य भानु की वैसी ही स्थिति है जैसी 'मानस' में उर्मिला की। भानु जी ने पच्चीस से अधिक कृतियों की रचना किंतु उपरोक्त दो कृतियों द्वारा उनके आचार्यत्व की स्थापना हुई। वे हिन्दी के सर्वप्रथम विद्वान हैं जिन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया। उनसे पूर्व यह सम्मान केवल संस्कृत के ब्राह्मण विद्वान को ही मिलता था। सन् 1942 में भानुजी को महात्मा गांधी, डॉ. ग्रियर्सन आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. गौरीशंकर ओझा, बाबू श्यामसुन्दरदास तथा 'हरिऔध जी' के साथ नागरी प्रचारिणी समिति ने सम्मानित किया था।
आचार्य भानु का जन्म अगस्त 8, 1859 को नागपुर में हुआ था। आपके पिता बख्शीराम भोंसले सेना में सेवा करते थे। भानुजी की औपचारिक शालेय शिक्षा बहुत ही कम हुई थी किंतु उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी, प्राकृत, उड़िया, मराठी तथा अंग्रेजी और साहित्य को गहन अध्ययन किया। इसके उन्होंने दर्शन, धर्म, गणित तथा ज्योतिष शास्त्रों का भी अध्ययन किया। सन् 1875 में रायपुर में मोहर्रिर के पद पर सेवा प्रारंभ कर वे सन् 1912 में सीनियर असिस्टेंट सेटलमेंट ऑफिसर के पद पर से सेवानिवृत्त हुए। इस बीच वे बिलासपुर, खंडवा, वर्धा, सागर तथा सम्बलपुर जिला में रहे। सेवानिवृत्त होकर वे बिलासपुर में ही रहने लगे थे। जहां उन्होंने सहकारी शासकीय आन्दोलन तथा स्त्री शिक्षा प्रसार का कार्यक्रम आरंभ किया। उन्हें बिलासपुर जिले में 'सहकारी आन्दोलन का जनक' कहा जाता है। बिलासपुर सहकारी संस्था द्वारा भानुजी की स्मृति में एक भवन निर्मित कराया गया है।
'एक भारतीय आत्मा' पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी जब प्राथमिक शाला में शिक्षक थे और साहित्य क्षेत्र में बढ़ने का क्रमिक उत्साह संजोए हुए थे। उन्हें भानुजी से शक्तिमयी प्रेरणा और सहायता प्राप्त हुई। इसी प्रकार गंगाप्रसाद अग्निहोत्री तथा सैयद अमीर अली 'मीर' को भी वे लगातार उत्साहित करते रहे। उनके साहित्य व्यक्तित्व की निर्मित में भानुजी को योगदान उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, मध्यप्रदेश के स्थान-स्थान पर कवि समाज की स्थापना कर उन्होंने इस क्षेत्र में साहित्यिक जागरण की चेतना का प्रसार किया था।
भानुजी को प्रारंभिक ख्याति कवि के रूप में मिली थी। उनकी पैतृक सम्पत्ति कविता ही थी। वे मनीषी थे, अर्जित ज्ञान और गंभीर अध्ययन द्वारा उन्होंने अपनी प्रतिभा का आत्यन्तिक विकास किया था। उनकी प्रारंभिक कृतियों से तत्कालीन विद्वत् समाज काफी प्रभावित हुआ था सन् 1885 में उन्हें 'भानु' की उपाधि प्राप्त हुई थी।
'छन्द प्रभाकर' भानुजी की सबसे पहली कृति है। इसकी रचना सन् 1893 में हुई और प्रकाशन सन् 1894 में हुआ। इस ग्रंथ में पहली बार हिन्दी में छन्द: शास्त्र का विस्तृत सुचिंतित वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया। इसमें छन्द लक्षण मात्रा, वर्ण, प्रत्यय आदि का विराट वर्णन विद्वतापूर्वक किया गया। इस ग्रंथ की कुछ अभूतपूर्व उपलब्धियां हैं। छन्दों का वर्णन गद्य में करने के अतिरिक्त जिस छंद का वर्णन किया गया है उसके लक्ष्ण तथा उदाहरण इसी छन्द में बताए गए हैं। इस तरह वह एक साथ लक्षण तथा उदाहरण दोनों का ही कार्य सिध्द करते हैं। साथ में, सुकवियों की रचनाओं में से भी उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किए और स्थान-स्थान पर संस्कृत तथा मराठी के छन्दों को हिन्दी के छन्दों के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। परवर्ती संस्करण में भानुजी ने तुकान्त का अध्ययन विश्लेषण भी इसमें जोड़ दिया और उर्दू, फारसी के बहरों का हिन्दी छन्दों के साथ तुलना की। इस संदर्भ में भानुजी के निष्कर्ष ऐतिहासिक तथा शास्त्रीय महत्व के हैं। उन्होंने यह सिध्द किया कि फारसी की अरकान को उर्दू में ग्रहण किया गया और उर्दू की बहर हिन्दी के मात्रिक छन्द के अंतर्गत आ जाते हैं। भानुजी ने अंग्रेजी के 'मीटर' का भी हिन्दी के छंदों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया, साथ ही हिन्दी छन्दों का अंग्रेजी में संक्षिप्त स्पष्टीकरण भी प्रस्तुत किया। भानुजी के छंद वर्णन में छन्द शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उनके द्वारा प्रस्तुत छन्द विषयक परिभाषा तथा मान्यता आज भी अभिमान्य है। 'छन्द प्रभाकर' के परावर्ती छन्द विषयक प्राय: समस्त ग्रंथ उसी के आधार पर ही प्रणीत किए गए हैं। 'छन्द प्रभाकर' के प्रकाशन के तीन वर्ष उपरांत सन् 1897 में भानुजी का दूसरा ग्रंथ 'नव पंचामृत रामायण' प्रकाशित हुआ। उस ग्रंथ में छन्द शास्त्र का सम्पूर्ण वर्णन रामचरितमानस के आधार पर किया गया है। उल्लेखनीय है कि भानुजी तुलसीदास जी के भक्त थे। वे महाकवि तुलसीदास जी के छन्दशास्त्र ज्ञान की प्रतिष्ठा की।
सन् 1909 में 'काव्य प्रभाकर' का प्रकाशन हुआ। इस ग्रंथ का प्रकाशन एक ऐतिहासिक घटना है। 'काव्य प्रभाकर' में पहली बार साहित्य शास्त्र का सर्वांग वर्णन हुआ। छन्द ध्वनिनंद, काव्यगुण, गद्य, पद्य, नाटक, संगीत, नायक-नायिका भेद, अनुमान, उद्दीपन, संचारीभाव, स्थायीभाव, रस, अलंकार आदि विविध शास्त्रीय अंगों का विश्लेषण नवीन दृष्टि से करने का प्रयास किया गया है। इस ग्रंथ में 'कोश तथा लोकोक्ति संग्रह' भी है। आधुनिक काल ने लोकोक्ति संग्रह करने की दिशा में पहला प्रयास भानुजी ने ही किया है।
'काव्य प्रभाकर' एक प्रकार से प्राचीन काव्य शास्त्र का वृहद कोष है। किंतु पूर्व आचार्यों के मतों का खण्डन मंडन करके भानुजी ने अपनी मौलिकतापूर्ण नवीन दृष्टि का परिचय भी दिया है। इस संदर्भ में सैध्दांतिक शब्दावली दृष्टव्य है। अर्थ, संदर्भ तथा दृष्टि के नए आयामों को भानुजी ने स्थान-स्थान पर उदाहरण तथा छुट-पुट व्याख्याओं द्वारा निरूपित किया है। उनकी परिभाषिक शब्दावली न तो संस्कृत की परम्परा का अनुमोदन करती हैं, न रीत्याचार्यों की भांति उसमें क्लिष्टता और दुरूहता है, साथ ही, वह पश्चिम के प्रभाव से भी पूर्णत: मुक्त है।
भानुजी के अन्य साहित्य शास्त्रीय ग्रंथों में 'छन्द प्रभाकर' में प्रस्तुत सिध्दांतों का अधिक विश्लेषणात्मक किन्तु सुगम अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ये कृतियां हैं, 'छंद सारावली', 'अलंकार प्रश्नोत्तरी', 'हिन्दी काव्यालंकार', 'रस रत्नाकर', 'काव्य प्रबन्ध', और 'नायिका भेद' शंकावली। भानुजी की गणित तथा ज्योतिष संबंधी कृतियों का भी बहुत सम्मान किया गया है। काल विज्ञान से संबंधित इतनी कृति 'काल विज्ञान' तथा 'काल प्रबोध' के अतिरिक्त 'की टू परपेचुअल केलेण्डर, ए.डी. एण्ड बी.सी.' विख्यात हैं। 'अंक विलास' नाम ग्रंथ में गणित संबंधी अनेक समस्याओं का हल प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही 'की टू परम्युटेशन ऑफ फीगर्स' भी गणित संबंधी रचना है।
भानुजी की दो काव्य कृतियां 'तुम्हीं तो हो' तथा 'जय हार चालीसी' भी उपलब्ध है। 'जयहार चालीसी' का मराठी अनुवाद उन्होंने किया था। वे 'फैज' उपनाम से उर्दू में भी रचनाएं किया करते थे। 'गुलजारे फैज' उनका काव्य संग्रह है जबकि 'गुलजारे सुखन' में भानुजी ने उर्दू के प्रसिध्द रचनाकारों के पद का संग्रह सम्पादित किया है।
साहित्य प्रसार में पत्रिकाओं के महत्व को ध्यान में रखकर उन्होंने दो साहित्यिक मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आरंभ करवाया था। 'काव्य कला निधि' का प्रकाशन मिरजापुर से और 'काव्य सुधा निधि' का जबलपुर से होता था।
भानुजी को आधुनिक हिन्दी साहित्य शास्त्र का प्रथम आचार्य कहें तो वह उचित ही होगा। कार्य महत्ता की दृष्टि से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को नहीं भुलाया जा सकता किंतु उनका कार्य परवर्ती है। अपने रचनाकाल में भानुजी अकेले हैं। उनके साथ ही सर्वश्री कन्हैयालाल पोद्दार, भगवानदीन, रसाल, सीताराम शास्त्री, अर्जुनदास केडिया, हरिऔघ आदि की गणना की जाती है किंतु सन् 1894 से 1909 तक हिन्दी साहित्य शास्त्र का, विशेषकर छंद शास्त्र का, विश्लेषणात्मक ढंग से इतना विशाल कार्य किसी अन्य साहित्य शास्त्री ने नहीं किया था जितना भानुजी ने किया था। अत: ऐतिहासिक क्रम में भानुजी प्रथम हैं। भानुजी ने सामाजिक पक्ष को ध्यान में रखकर परिवर्तित आधारों तथा मूल्यों से सैध्दांतिक विवेचन को सम्बध्द कर निष्कर्ष दिए हैं। उनके निष्कर्ष युग चेतना से अनुप्राणित है। उस काल में उनका भाषा वैज्ञानिक तथा साहित्य इतिहासज्ञ स्वरूप नई संभावना से युक्त रहा था। वे अंतर्दृष्टि सम्पन्न समीक्षक थे। सैध्दांतिक समीक्षा के क्षेत्र में उनकी प्रतिभा से नया आलोक प्रकीर्ण हुआ जिससे भविष्य की रूपरेखा की सृष्टि हो सकी।
वे कर्मठ साहित्य सेवा की भांति जीवन के अंतिम क्षणों तक साहित्य साधना करते रहे थे। अक्टूबर 25, 1945 को उनके निधन से हिन्दी साहित्य का एक पुंज आलोकपुंज बुझ गया था। वे छत्तीसगढ़ के साहित्य सेवियों में अग्रगामी थे।
-डॉ. सुशील त्रिवेदी
क्यू-3 श्रीरामनगर 
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रायपुर
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