हाजी हसन अली का जन्म 2 अक्टूबर 1913 में रायपुर में हुआ था । स्वनामधन्य पिता श्री डी.बी.खमीसा के सान्निध्य में, साहित्यिक वातावरण में आपका लालन-पालन हुआ । आपकी शिक्षा-दीक्षा उर्दू माध्यम से हुई । अदीबे कामिल समकक्ष बी.ए. तक आपने तालीम प्राप्त की । उर्दू अदब के बुजुर्गों की शागिर्दी में रहते हुए आप युवावस्था से ही उर्दू साहित्य की खिदमत करने लगे । आपने उर्दू भाषा को जन सामान्य में प्रचलित करने की दृष्टि से उर्दू कैसे सीखें हिन्दी से उर्दू सीखे तथा लिखना पढ़ना उर्दू सीख जैसी पुस्तकों की रचना की ।
अंजुमने पंजतनी के अध्यक्ष की हैसियत से आपने अखिल भारतीय मुशायरा तथा अखिल भारतीय उर्दू कांफ्रेन्स आयोजित किया। उर्दू शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए आपने 1972 में मदरसां स्कूलो की स्थापना की, साथ ही पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को अध्ययन हेतु प्रेरित करने के लिए इनाम देने की परम्परा भी आरंभ की। समाज सेवा से संबंधित कार्यक्रमों में भी आप लगातार शरीक होते रहे।
उर्दू की सेवा के लिए आपको अनेकों सम्मान से नवाजा गया है, जिनमें मुहाफिले उर्दू, आदाबे उर्दू, उर्दू रत्न, रुहे उर्दू, उर्दू की जान और शान आदि उल्लेखनीय हैं । जीवन पर्यन्त उर्दू की निःस्वार्थ सेवा करने और शायरों-कवियों की हौसला-अफजाई करने वाले हाजी साहब का विचार था कि उर्दू सिर्फ मुस्लिमों की जबान नहीं है, वरन् देशवासियों की भाषा है । आपकी शख्सियत में अदब नवाजी के साथ खुद्दारी की झलक थी ।
वतनपरस्ती के साथ कौम की खिदमत में आप हमेशा मसरुफ रहे । ताजिन्दगी उर्दू की बेहतरी के लिए फिक्रमंद, आपका इन्तकाल 72 साल की उम्र में 19 फरवरी 1985 को हो गया । छत्तीसगढ़ में उर्दू अदब को प्रोत्साहन देने, माकूल फिजा तैयार करने और गौरवशाली परंपरा को कायम रखने वाले हाजी साहब का अवदान नई पीढ़ी को रौशनी देता रहेगा । छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में उर्दू भाषा की सेवा के लिये हाजी हसन अली सम्मान स्थापित किया है ।
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